स्तोत्र 36
36 1 दुष्ट के हृदय में उसका दोष भाव उसे कहते रहता है: उसकी दृष्टि में परमेश्वर के प्रति कोई भय है ही नहीं. 2 अपनी ही नज़रों में वह खुद की चापलूसी करता है. ऐसा कि उसे न तो अपना पाप दिखाई देता है, न ही उसे पाप से घृणा होती है. 3 उसका बोलना छलपूर्ण एवं बुराई की है; बुद्धि ने उसका साथ छोड़ दिया है तथा उपकार भाव अब उसमें रहा ही नहीं. 4 यहां तक कि बिछौने पर लेटे हुए वह बुराई युक्ति रचता रहता है; उसने स्वयं को अधर्म के लिए समर्पित कर दिया है वह बुराई को अस्वीकार नहीं कर पाता. 5 याहवेह, आपकी करुणा-प्रेम स्वर्ग तक, तथा आपकी विश्वासयोग्यता आकाशमंडल तक व्याप्त है. 6 आपकी धार्मिकता विशाल पर्वत-समानता, तथा आपकी सच्चाई अजानकारी महासागर तुल्य है. याहवेह, आप ही मनुष्य एवं पशु, दोनों के परिरक्षक हैं. 7 कैसा अप्रतिम है आपका करुणा-प्रेम! आपके पंखों की छाया में साधारण और विशिष्ट, सभी मनुष्य आश्रय लेते हैं. 8 वे आपके आवास के उत्कृष्ट भोजन से तृप्त होते हैं; आप सुख के नदी से उनकी प्यास बुझाते हैं. 9 आप ही जीवन के स्रोत हैं; आपके प्रकाश के द्वारा ही हमें ज्योति का भास होता है. 10 जिनमें आपके प्रति श्रद्धा है, उन पर आप अपना करुणा-प्रेम एवं जिनमें आपके प्रति सच्चाई है, उन पर अपनी धार्मिकता बनाए रखें. 11 मुझे अहंकारी का पैर कुचल न पाए, और न दुष्ट का हाथ मुझे बाहर धकेल सके. 12 कुकर्मियों का अंत हो चुका है, वे ज़मीन दोस्त हो चुके हैं, वे ऐसे फेंक दिए गए हैं, कि अब वे उठ नहीं पा रहे!